Thursday 24 February 2011

ग़ज़ल: तितलियाँ अच्छी लगीं

चित्र गूगल से साभार 
एक गज़ल -तितलियाँ अच्छी लगीं 
फूल, जंगल, झील, पर्वत घाटियाँ अच्छी लगीं 
दूर तक बच्चों को उड़ती तितलियाँ अच्छी लगीं |

जागती आँखों ने देखा इक मरुस्थल दूर तक 
स्वप्न में जल में उछ्लतीं मछलियाँ अच्छी लगीं |

मूंगे -माणिक से बदलते हैं कहाँ किस्मत के खेल 
हाँ मगर उनको पहनकर उँगलियाँ अच्छी लगीं |

देखकर मौसम का रुख तोतों के उड़ते झुंड को 
पके गेहूं की सुनहरी बालियाँ अच्छी लगीं |

दूर थे तो सबने मन के बीच सूनापन भरा 
तुम निकट आये तो बादल बिजलियाँ अच्छी लगीं |

उसके मिसरे पर मिली जब दाद तो मैं जल उठा 
अपनी ग़ज़लों पर हमेशा तालियाँ अच्छी लगीं |

जब जरूरत हो बदल जाते हैं शुभ के भी नियम 
घर में जब चूहे बढे तो बिल्लियाँ अच्छी लगीं |


चित्र -गूगल से साभार 

[मेरी यह ग़ज़ल आजकल फरवरी 2007 में प्रकाशित है ]

Wednesday 23 February 2011

दो कविताएं: कवयित्री डॉ० अलका प्रकाश

डॉ० अलका प्रकाश हिन्दी की एक युवा लेखिका और कवयित्री हैं |15 जुलाई 1977 को उत्तर प्रदेश के जनपद  म ऊ की घोसी तहसील में इस कवयित्री का जन्म हुआ | इलाहबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल करने के बाद इन्होंने डॉ० शैल पाण्डेय जी के निर्देशन में डी० फिल की उपाधि प्राप्त की | नारी चेतना के आयाम स्त्री-विमर्श पर इनकी महत्वपूर्ण पुस्तक है जिसे लोकभारती ने प्रकाशित किया है | तन्द्रा टूटने तक प्रकाशनाधीन है | अलका प्रकाश बड़ी संजीदगी से लेखन कर रही हैं | विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इनकी कवितायेँ /लेख प्रकाशित होते रहते हैं | स्वभाव से विनम्र और मृदुभाषी इस कवयित्री की दो कविताएं हम आप तक पहुंचा रहे हैं:-

कवयित्री
डॉ० अलका प्रकाश 

१. आज किसी वजह से
आज किसी वजह से 
बहुत दुखी हो 
उदास है तुम्हारा मन 
उसने ऐसा क्यों किया 
कल किसी और वजह से 
दुखी होगी 

सोचो 
दुःख ओढ़े रहना कहीं 
तुम्हारा स्वाभाव तो नहीं 
कारण हमेशा रहेंगे 
खुशी तुम्हारे आस-पास ही है 
उसे ढूंढो पहचानो 

अब तुम कहोगी 
मैं ऐसी कहाँ हूँ 
यह दुःख तो प्राकृतिक है 
कैसे खुश रहूँ 
यही मेरी नियति है 
वगैरह-वगैरह 

देखो प्रश्नों की श्रृंखला का 
कोई अंत नहीं 
तुम ढूंड ही लोगी
कोई कारण 
हर उदास पल का 
एक बहाना जरा जीने का ढूढों |

२. लोकल बस में 

लोकल बस में 
सफर करते 
अक्सर उसकी देह 
मर्दों से रगड़ जाती है 

कभी घूरती निगाहों से
बचने के लिए 
दुपट्टा सर से बांध लेती है 
कभी उसके सहयोगी कहते हैं 
चलिए घर तक छोड़ दें 
वह मना कर देती है

उसने सुने हैं 
उनके कहकहे 
यार सीट गरम हो गयी 
ऐसी वैसी 
बहुत सी बातों को 
प्रायः वह अनसुना कर देती है 
सुबह की आपा-धापी में
जब सारे काम निपटा कर 
वह दफ्तर पहुंचती है 
खिस्स से एक स्वर उभरता है 
ऑफिस में गर्मी आ गयी यार
अब काफी की
कोई जरूरत नहीं है 
भोला जाओ
कोल्ड ड्रिंक लाओ 
वह आखिर
दुखी क्यों हो जाती है 
मध्यम वर्गीय मानसिकता की मारी 
जबकि उसे पता है 
इसी हॉट शब्द के चक्कर में 
सुंदरियां विज्ञापन के लिए 
अनवरत 
अपने वक्षों और नितंबों की 
शल्य क्रियाएँ करा रहीं हैं 
घर पर कुछ बोले तो 
कहा जाता है कि 
किसने कहा था 
घर से बाहर निकलने के लिए 
घर पर पड़ी रहो 
किन्तु क्या वहाँ खतरे कम हैं 
अगर रोकर दुख बाहर करे तो 
तो मौके कि तलाश में 
रहते हैं 
इंसान के भेष में भेडिये 
फिर उसके कानों में 
गूंजते हैं रहीम के दोहे ..
.रहिमन निज मन कि व्यथा ......
कहीं से एक और आवाज उठती है 
साइलेंस इज वोयलेंस 
इसी उधेड़ बुन में 
उसका सर चकरा जाता है
बॉस के चेम्बर में कैसे जाए 
जो कुर्सी पर टांग फैलाये
अश्लील फिल्मे देखकर 
ढू ढ ता है अपना शिकार 
कहाँ फरियाद करे 
नौकरी जाने का डर 

नारीवाद तो सिखा रहा है 
देह को मुक्त करो
उसका प्रश्न है किसके लिए 
इन ड्रेकुलाओं के लिए 
कोई दार्शनिक की 
भंगिमा में कह रहा है 
देखो 
औरत की देह हथियार है 
इस बाजारवाद के दौर में 
तुम्हारे पास देह है 
तो 
तुम कुछ भी 
खरीद सकती हो 
वह उत्तर देती है 
मेरी देह में एक आत्मा भी है  

चित्र -गूगल से साभार 

Thursday 10 February 2011

सुहाना हो भले मौसम



 सुहाना हो भले मौसम मगर अच्छा नहीं लगता 
सफर में तुम नहीं हो तो सफर अच्छा नहीं लगता 

फिजां में रंग होली के हों या मंजर दिवाली के 
मगर जब तुम नहीं होते ये घर अच्छा नहीं लगता 

जहां बचपन की यादें हों कभी माँ से बिछुड़ने की 
भले ही खूबसूरत हो शहर अच्छा नहीं लगता 

परिंदे जिसकी शाखों पर कभी नग्मे नहीं गाते 
हरापन चाहे जितना हो शजर अच्छा नहीं लगता 

तुम्हारे हुस्न का ये रंग सादा खूबसूरत है 
हिना के रंग पर कोई कलर अच्छा नहीं लगता 

तुम्हारे हर हुनर के हो गए हम इस तरह कायल 
हमें अपना भी अब कोई हुनर अच्छा नहीं लगता 

निगाहें मुन्तजिर मेरी सभी रस्तों की हैं लेकिन 
जिधर से तुम नहीं आते उधर अच्छा नहीं लगता                                                                             

(चित्र गूगल से साभार )

Tuesday 8 February 2011

दो ग़ज़लें : कवि सुरेन्द्र सिंघल

कवि -सुरेन्द्र सिंघल 
परिचय -
सुरेन्द्र सिंघल हिंदी गज़ल में एक जाना पहचाना नाम है | २५ मई १९४८ को बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश में जन्मे इस कवि की गजले देश की विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होतीं रही हैं | डी .एच .लारेंस की कविताओं पर समीक्षा पुस्तक Where the Demon Speaks प्रकाशित हो चुकी है | सुरेन्द्र सिघल की इंग्लिश में लिखी कविताएँ अंग्रेजी की पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं हैं | जे .वी .जैन पी .जी .कालेज के अंग्रेजी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत सुरेन्द्र सिंघल रामधारी सिंह दिनकर सम्मान सहित कई सम्मानों से सम्मानित हो चुके |हिंदी गज़ल में सुरेन्द्र सिघल का अंदाज बिलकुल निराला है | सवाल ये है  गज़ल पर इनकी चर्चित पुस्तक है जो मेधा बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित है : सुरेन्द्र सिंघल जी की दो ग़ज़लें आज हम आपके साथ साझा कर रहे हैं .......

से साभार

(१)

वो केवल हुक्म देता है सिपहसालार जो ठहरा
मैं उसकी जंग लड़ता हूँ ,मैं बस हथियार जो ठहरा |

दिखावे की ये हमदर्दी ,तसल्ली खोखले वादे
मुझे सब झेलने  पड़ते हैं ,मैं बेकार जो ठहरा |

घुटन लगती न जो कमरे में एक दो खिड़कियाँ होतीं
मैं केवल सोच सकता हूँ किरायेदार जो ठहरा |

तू भागमभाग में इस दौर की शामिल हुई ही क्यों ?
मैं कैसे साथ दूँ तेरा मैं कम रफ़्तार जो ठहरा |

मोहबत्त दोस्ती ,चाहत वफ़ा ,दिल और कविता से
मेरे इस दौर को परहेज है बीमार जो ठहरा |

उसे हर शख्स को अपना बनाना खूब आता है
मगर वो खुद किसी का भी नहीं, हुशियार जो ठहरा |
                     

(२)

जिक्र मत छेड़ तू यहाँ दिल का
कर न बर्बाद वक्त महफ़िल का |

उससे मिलने का वक्त आया है
गूंज जाये न सायरन मिल का |

रेस्तरां में हूँ उसके साथ मगर
खौफ मुझको है चाय के बिल का |

मैं ये समझूंगा जीत है मेरी
हाथ कापें तो मेरे कातिल का |

पांव मेरे हैं रास्ते उनके
खूब है ये सफर भी मंजिल का |


एक ग़ज़ल -ग़ज़ल ऐसी हो

  चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल - कभी मीरा, कभी तुलसी कभी रसखान लिखता हूँ  ग़ज़ल में, गीत में पुरखों का हिंदुस्तान लिखता हूँ  ग़ज़ल ऐसी हो जिसको खेत ...