Tuesday 20 November 2012

कुशल चित्रकार और कवयित्री वाजदा खान की कवितायेँ

कुशल चित्रकार और कवयित्री वाजदा खान
सम्पर्क -09868744499
कोई अच्छा कवि हो सकता है तो कोई एक कुशल चित्रकार |दोनों ही हुनर विरले लोगों को ही मिलते हैं |ये दोनों ही हुनर मिले हैं चित्रकार ,कवयित्री वाजदा खान को |वाजदा खान समकालीन हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण कवयित्री हैं | वाजदा खान का जन्म 15 जून 1969को ग्राम -बढ़नी ,सिद्धार्थनगर [उ० प्र० ]में हुआ था |यह  कवयित्री एक कुशल और लब्धप्रतिष्ठ चित्रकार /पेंटर भी है |वाजदा खान जिस तरह स्त्री मनोभावों को अपनी पेंटिंग्स में चित्रित करती हैं उसी तरह अपनी कविताओं में भी बड़े सलीके से उन्हें अभिव्यक्त करती हैं |नया ज्ञानोदय ,हंस ,वागर्थ ,बहुवचन ,साक्षात्कार ,साहित्य अमृत ,आजकल ,पाखी और देश की अन्य प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं |वाजदा खान की कुछ कविताओं का कन्नड़ में अनुवाद भी हुआ है |देश के कई सम्मानित काव्य मंचों पर इनका काव्य पाठ भी हो चुका है |वाजदा खान की पेंटिंग्स की एकल और सामूहिक प्रदर्शनियां देश की विख्यात कलादीर्घाओं में आयोजित  हो चुकी हैं |देश की कई कार्यशालाओं में भाग ले चुकी वाजदा खान को भारत के संस्कृति मंत्रालय द्वारा वर्ष 2004-2005 में फेलोशिप भी दी प्रदान की गयी है | जिस तरह घुलती है काया भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित वाजदा खान का कविता संग्रह है जिसे हेमंत स्मृति सम्मान 2010 से सम्मानित किया जा चुका है |वाजदा खान ललित कला अकादमी नई दिल्ली [लाजपत नगर के पास ]बतौर स्वतंत्र कलाकार कार्यरत हैं |हम वाजदा खान की कुछ कविताएँ अंतर्जाल के माध्यम से पहुंचा रहे हैं |

कुशल चित्रकार और कवयित्री वाजदा खान की कविताएँ 
बाजार का हिस्सा हैं हम
बिना सीमा की
बिना नैतिकता की
और बिना मूल्यों की वर्जनाएं
घूम रही हैं पूरे बाजार में
उसी बाजार का हिस्सा हैं हम।

वाजदा खान बाएं सुप्रसिद्ध कथा लेखिका ममता कालिया के साथ 

नि:शब्द
उसकी आंखों में सात रंगों का
मेकअप नहीं था
सच के रंग थे
देखना उसे ध्यान से
तमाम अनिवार्य ख्वाहिशों के रंग
उन रंगों में
उगी थी वह कायनात
तनी थी जो
उसके जिस्म पर
कोरे कैनवस सा
भरकर तमाम ख्वाहिशों के रंग
बनाना चाहती थी
एक नायाब पेन्टिंग
कि तुम बरबस बोल दो
हां, यही है वह अक्स
जिनकी तलाश में
जन्म-जन्मान्तर भटक रहे शब्द
नि:शब्द।
खो गया सवेरा
किसी अंधेरे में सवेरा खो गया
कितना मासूम कितना निश्छल अंधेरा
कब चांदनी रातों में उगता है
कब उसकी पीली आंखों में
रुमानियत की लौ उगती है
कब खो जाता है
आसमान का चांद बनकर
दूर बहुत दूर
अदृश्य हो जाता
बाज वक्त के लिए
मुसलसल बैठी
कटी शाखों पर
तीतर, बटेरों, गौरैय्यों को
इंतजार रहता
आसमान के फूल खिलने का।
लकीरों की याद
बंद पलकों के अंधेरे में
यहां-वहां फुदकती चिड़िया
कुछ ढूंढती चिड़िया
तुम हरसिंगार के ढेरों फूल
तुम उगे उस शजर (वृक्ष) में
जिसके जिस्म में
रुहानी टहनियां रुहानी शाखें
और पत्तियां हैं उनमें
दर्ज हैं तमाम खूबसूरत
लकीरों की याद
पत्तियों में उभरी नसें हैं
भरा है उनमें
आंखों का पानी
जड़ों में गहराई है इतनी
गहराई कि मजबूती से जमे हों
मिट्टी में
तुम्हारी जिस्म के खुशबू के
सुरूर में डूबे गुच्छों में से
कुछ फूल चुनकर
लाली मेरे लाल की तर्ज पर
लाल रंग की आभा में
सराबोर कैनवस पर
उगा लूं
अभी तक वहां
पत्तियों का आगाज है
तवारुफ होगा उनसे तो
फूल आएंगे
शोख नारंगी /  हल्के पीले
रंग के पत्तियों का
संग हो जाएगा।
गुमराह होने से बचना
पौधे ने पनपना प्रारम्भ कर दिया
नन्हीं कोमल पत्तियां
खिल रही हैं पूरे एहसास के साथ
बढ़ते पौधे के साथ विकसित होंगी
टहनियां, फैलाव होगा पत्तियों का
आसमान तक
पत्तियों में उगी नसों और
हथेली की रेखाओं में ढूंढूगी
साम्यता, हर रेखा पीड़ा की
लोककथा बनकर बरस रही
बारिश सी
युवा होते पौधे
पर क्या पौधे का हरापन
बरकरार रह पाएगा
या छा जाएगी निम्नतम तापमान की
उदासी, कि जम जाएगा ऊर्जा का स्रोत भी
जो जीने की ताकत देता है
गुमराह होने से बचाता है
महफूज करता है चुक सकने की उदासी से
उन तमाम दीमक की तरह
चाटने वाले कीड़ों से जो नमी के साथ
उग आते हैं पौधों की जड़ों में
निरन्तर ख्याल रखना पड़ता है
सतर्क रहना पड़ता है, फिर कहीं
पसीने और आंसुओं से रची उदासीनता का
टुकड़ा पसर न जाए
कहीं जड़ों पर
बहुत मुश्किल होगा तब जड़ों को बचाना।
जिन्दगी और रंगमंच
किसी भी भूमिका का निर्वाह करना
अपने आप में कितना दुष्कर कार्य है
भूमिका चाहे जिन्दगी की हो
या रंगमंच की
उस परिवेश से प्रेरणा ग्रहण
करनी हो होती है
जिसमें हमारी सांस-सांस रची-बसी है
चाहे कितनी कटुताएं हों, कितना क्षोभ
कितनी अशान्ति
चाहे कितने अभाव हों
मुस्कराना तो है ही
संघर्ष की लम्बी राह पर
नट सा संतुलन बनाकर पांव जमाना है
रस्सी जैसी पतली पगडंडियों पर
संकल्प तो रखना है
एक क्रांतिकारी युग की
शुरुआत के लिए
उपयोग करना है उसमें अपनी
नष्ट होती ऊर्जा को
साथ-साथ आगाह करते जाना है
अवचेतन मन को
लड़खड़ाए जो पांव तुम्हारे
बिगड़ जाएगा संघर्ष और खुशी का संतुलन
इसलिए अनिवार्य है तुम मछली की
आंख पर ध्यान केंद्रित करो
और अपने अन्वेषी मन को उड़ान भरने दो
भू दृश्य के चारों ओर सपाट धरातल पर
खुद ही संरचना कर लेंगे
उन तमाम रुपाकारों का
जो उत्सर्जित होते होंगे उनकी
अपनी देह से
संभव हो तुम पा लो
चेतना का अंत:परिवर्तन
विभेद कर लो आध्यात्मिकता और
भौतिकता में
उपज सके तुम्हारे चारों ओर
वह प्रेम महरुम हो हो जिससे तुम
वैयक्तिकता को तब्दील
कर सको सौन्दर्यबोधीय
आत्म विकास में जिसका
तुममें नितान्त अभाव है।
कवयित्री वाजदा खान की कुछ मनमोहक पेंटिंग्स 
वाजदा खान की एक मोहक पेंटिंग 

8 comments:

  1. वाजदा खान जी और उनकी रचनाओं से परिचय कराने
    के लिए के आभार,,,

    recent post...: अपने साये में जीने दो.

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  2. इक से बढ़कर इक रचनाये वाजदा खान जी की शेयर करने के लिए आभार

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  3. भाई धीरेन्द्र जी ,वंदना जी आप दोनों का ही बहुत -बहुत आभार |

    ReplyDelete
  4. धीरेन्द्र जी,

    बहुत बहुत शुक्रिया

    ReplyDelete
  5. धीरेन्द्र जी,

    बहुत बहुत शुक्रिया

    ReplyDelete
  6. सभी रचनाएँ और पैंटिंग्स बहुत सुंदर...

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  7. वाजदा ख़ान जी की कविताएं मानव-मन के सूक्ष्म तंतुओं को सलीके से बुनती प्रतीत होती हैं।

    शुभकामनाएं।

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  8. अन्तर्मन के तारोँ को झंकृत करती पंक्तियाँ । इक ऐसी अनुभूति जैसे मन पतंग बन नीले आसमान मे उन्मुक्त-उन्मत्त विचरने को आजाद, डोर की परवाह नहीँ , मंजिल का पता नहीँ , बस उड़ान ही सबकुछ ! अत्यंत मनमोहक । अतिशय प्रेमिल...।

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