Sunday 27 January 2013

आधुनिक सिनेमा और उर्दू शायरी के कबीर पद्मश्री निदा फ़ाज़ली और उनकी दो ग़ज़लें

सम्पर्क -09869487139
भारत सरकार द्वारा मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली को गणतन्त्र दिवस के मौके पर पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया जाना केवल निदा फ़ाज़ली का सम्मान नहीं वरन यह भारतीय संस्कृति ,हमारी गंगा -जमुनी तहजीब को भी सम्मान मिला है |निदा फ़ाज़ली आधुनिक उर्दू शायरी के कबीर हैं | निदा फ़ाज़ली चाहे अदब हो या सिनेमा शायरी को कभी हल्का नहीं होने देते हैं |निदा साहब भाषा की सहजता के भी कायल हैं |हम सभी कलमकार उनको पद्मश्री दिए जाने पर उन्हें सलाम और प्रणाम करते हैं |उनका परिचय हमारे सुनहरी कलम से ब्लॉग पर मौजूद है |हम उनके सम्मान स्वरूप उनकी दो चर्चित ग़ज़लें आपके साथ साझा कर रहे हैं |  

पद्मश्री निदा फ़ाज़ली जी की दो ग़ज़लें -

एक [पाकिस्तान से लौटकर लिखी गई ग़ज़ल ]
इन्सान तो हैवान यहाँ भी है वहां भी 
अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहां भी 

खूंख्वार दरिन्दों के फ़क़त नाम अलग हैं 
शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहां भी 

रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत 
हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहां भी 

हिन्दू भी मज़े में हैं मुसलमाँ भी मज़े में 
इन्सान परेशान यहाँ भी है वहां भी 

उठता है दिलो-जां से धुआं दोनों तरफ़ ही 
ये मीर 'का दीवान यहाँ भी है वहां भी 
दो 
सफ़र में धूप तो होगी ,जो चल सको तो चलो 
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो 

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता 
मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो 

हर इक सफ़र को है महफूज़ रास्तों की तलाश 
हिफ़ाज़तों की रिवायत बदल सको तो चलो 

यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें 
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो 

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं 
तुम अपने आपको खुद ही बदल सको तो चलो 

Wednesday 16 January 2013

एक गीत -फिर नया दिनमान आया

चित्र -गूगल से साभार 
एक गीत -फिर नया दिनमान आया 
पर्वतों का 
माथ छूकर 
टहनियों का 
हाथ छूकर 
फिर नया दिनमान आया |
नया संवत्सर 
हमारे घर 
नया मेहमान आया |

सूर्यमुखियों के 
खिले चेहरे 
हमें भी दिख रहे हैं ,
कुछ नई 
उम्मीद वाले 
गीत हम भी लिख रहे हैं ,
ज़ेहन में 
भुला हुआ फिर से 
कोई उपमान आया |

पेड़ पर 
ऊंघते परिन्दे 
जाग कर उड़ने लगे हैं ,
नए मांझे 
फिर पतंगों की
तरफ बढ़ने लगे हैं ,
घना कोहरा 
चीरकर मन में 
नया  अरमान  आया |

नई किरणों 
से नई आशा 
नई उम्मीद जागे ,
पत्तियों के 
साथ ताज़े फूल 
गूँथे नए धागे ,
खुशबुओं का 
शाल ओढ़े 
फिर नया पवमान आया |

खूंटियों पर 
टंगे कैलेन्डर 
हवा में झूलते हैं ,
हम इन्हीं 
को देखकर 
बीता हुआ कल भूलते हैं ,
चलो मिलकर 
पियें काफ़ी 
किचन से फ़रमान आया |
[यह गीत दिनांक 28-01-2013 को दैनिक जागरण के सप्तरंग पुनर्नवा साहित्यिक पृष्ठ पर प्रकाशित हो गया है |हम सम्पादक व सुप्रसिद्ध कथाकार राजेन्द्र राव जी के विशेष आभारी हैं ]
चित्र -गूगल से साभार 

एक ग़ज़ल -ग़ज़ल ऐसी हो

  चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल - कभी मीरा, कभी तुलसी कभी रसखान लिखता हूँ  ग़ज़ल में, गीत में पुरखों का हिंदुस्तान लिखता हूँ  ग़ज़ल ऐसी हो जिसको खेत ...